सिहावा पर्वत "श्रृंगी ऋषि तपोभूमि" "महानदी उद्गम स्थल" - अर्चना साहू।
प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर सिहावा नगरी में विद्यमान श्रृंगी ऋषि पर्वत जहां से प्रकृति के नजारे देखते ही बनते है।
धमतरी, छत्तीसगढ़। यह स्थान छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के नगरी से 8 किलोमीटर की दूरी पर है। यह श्रृंगी ऋषि की तपोभूमि है इस पर्वत पर वह गुफा स्थित है जहां पर उन्होंने साधना किया था। इस गुफा पर श्रृंगी ऋषि की मूर्ति स्थापित की गई हैं। श्रृंगी ऋषि से ही लगा कुछ ही दूरी पर मां शांता देवी की गुफा स्थित है। व पर्वत से नीचे स्वयंभू मां शीतला देवी विराजमान है।
वर्तमान में सिहावा नगरी श्रृंगी ऋषि को राम वन गमन पथ के रूप में विकसित किया जाना है।
महानदी का उद्गम स्थल
इस पर्वत पर एक कुंड विराजमान है जिसे महानदी का उद्गम स्थल कहा जाता है। पर्वत के नीचे महानदी एक घाट पर निकलती है जिसे गणेश घाट के नाम से जाना जाता है इस जगह का पानी कभी भी नहीं सूखता है। महानदी "छत्तीसगढ़ की गंगा" "छत्तीसगढ़ की जीवन" रेखा नदी है
इस नदी को सतयुग में "निलोत्पला" , द्वापर युग में "चित्रोत्पला गंगा", प्राचीन भारत/वैदिक काल में "कनक नंदिनी" तथा महाभारत काल में श्रृंगी ऋषि के प्रिय शिष्य महानंद बाबा के नाम पर महानंदा तथा वर्तमान में महानदी के नाम से जाना जाता है।
ऐसी मान्यता है कि श्रृंगी ऋषि ध्यान मग्न थे उस समय उनका कमंडल गिर गया जिसका जल महानदी का रूप धारण कर पूर्व दिशा की ओर बहने लगी ऋषि का ध्यान जैसे ही खुला अपनी चिंमटी फेंक कर महानदी को उत्तर की ओर बहने का आदेश दिया।
यह चिमटी फरसिया के एक स्थान पर जाकर गिरी जो की नगरी सिहावा से 7 किलोमीटर की दूरी पर है। यह चिमटी आज भी उसी स्थान पर विद्यमान है और इस स्थान से महानदी को लौटते हुए भी देखा जा सकता है यह स्थान महामाया मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है इस स्थान पर माघ पूर्णिमा व शिवरात्रि में मेले का आयोजन किया जाता है।
श्रृंगी ऋषि का इतिहास
ऋष्यशृंग या श्रृंगी ऋषि सप्तर्षियों में से एक वाल्मीकि रामायण में एक पात्र हैं जिन्होंने राजा दशरथ के पुत्र प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराये थे । वह विभाण्डक ऋषि के पुत्र तथा कश्यप ऋषि के पौत्र बताये जाते हैं । उनके नाम को लेकर यह उल्लेख है कि उनके माथे पर सींग ( संस्कृत में ऋग ) जैसा उभार होने की वजह से उनका नाम श्रृंगी ऋषि पड़ा था । उनका विवाह अंगदेश के राजा रोमपाद की दत्तक पुत्री शान्ता से सम्पन्न हुआ जो कि वास्तव में दशरथ की पुत्री थीं ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋष्यशृंग विभाण्डक तथा अप्सरा उर्वशी के पुत्र थे । विभाण्डक ने इतना कठोर तप किया कि देवतागण भयभीत हो गये और उनके तप को भंग करने के लिए उर्वशि को भेजा । उर्वशी ने उन्हें मोहित कर उनके साथ संसर्ग किया जिसके फलस्वरूप ऋष्यशृंग की उत्पत्ति हुयी । ऋष्यशृंग के माथे पर एक सींग ( शृंग ) था , अतः उनका यह नाम पड़ा । ऋष्यशृंग के पैदा होने के तुरन्त बाद उर्वशी का धरती का काम समाप्त हो गया तथा वह स्वर्गलोक के लिए प्रस्थान कर गई । इस धोखे से विभाण्डक इतने आहत हुये कि उन्हें नारी जाति से घृणा हो गई तथा उन्होंने अपने पुत्र ऋष्यशृंग पर नारी का साया भी न पड़ने देने की ठान ली । इसी उद्देश्य से वह ऋष्यशृंग का पालन - पोषण एक अरण्य में करने लगे । वह अरण्य अंगदेश की सीमा से लग के था ।
ऐसी मान्यता है कि एक बार अंगदेश के राजा रोमपद और उनकी रानी वर्षिणी अयोध्या आए . तो उनकी कोई संतान नहीं थी . बातचीत दौरान राजा दशरथ को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने कहा , मैं मेरी बेटी शांता आपको संतान के रूप में दूंगा . रोमपद और वर्षिणी बहुत खुश हुए . उन्हें शांता के रूप में संतान मिल गई . उन्होंने बहुत स्नेह से उसका पालन पोषण किया और माता - पिता के सभी कर्तव्य निभाएं
कैसे हुआ शांतादेवी से ऋषि श्रृंग का विवाह- एक दिन राजा रोमपद अपनी पुत्री से बातें कर रहे थे . तब द्वार पर एक ब्राह्मण आया और उसने राजा से प्रार्थना की कि वर्षा के दिनों में वे खेतों की जुताई में शासन की ओर से मदद प्रदान करें । राजा को यह सुनाई नहीं दिया और वे पुत्री के साथ बातचीत करते रहे . द्वार पर आए नागरिक की याचना न सुनने से ब्राह्मण को दुख हुआ और वे राजा रोमपद का राज्य छोड़कर चले गए . वे इंद्र के भक्त थे . अपने भक्त की ऐसी अनदेखी पर इंद्र देव राजा रोमपद पर क्रुद्ध हुए और उन्होंने पर्याप्त वर्षा नहीं की . अंग देश में नाम मात्र की वर्षा हुई . इससे खेतों में खड़ी फसल मुर्झाने लगी .
अंगराज रोमपाद ( चित्ररथ ) ने ऋषियों तथा मंत्रियों से मंत्रणा की तथा इस निष्कर्ष में पहुँचे कि यदि किसी भी तरह से ऋष्यशृंग को अंगदेश की धरती में ले आया जाता है तो उनकी यह विपदा दूर हो जायेगी । अतः राजा ने ऋष्यशृंग को रिझाने के लिए देवदासियों का सहारा लिया क्योंकि ऋष्यशृंग ने जन्म लेने के पश्चात् कभी नारी का अवलोकन नहीं किया था । और ऐसा ही हुआ । ऋष्यशृंग का अंगदेश में बड़े हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया गया । उनके पिता के क्रोध के भय से रोमपाद ने तुरन्त अपनी पुत्री शान्ता का हाथ ऋष्यशृंग को सौंप दिया ।
पुत्रकामेष्ठि यज्ञ: राजा दशरथ और इनकी तीनों रानियां इस बात को लेकर चिंतित रहती थीं कि पुत्र नहीं होने पर उत्तराधिकारी कौन होगा . इनकी चिंता दूर करने के लिए ऋषि वशिष्ठ सलाह देते हैं कि आप श्रृंगी ऋषि से पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाएं . इससे पुत्र की प्राप्ति होगी . दशरथ ने उनके मंत्री सुमंत की सलाह पर पुत्रकामेष्ठि यज्ञ में महान ऋषियों को बुलाया . इस यज्ञ में दशरथ ने श्रृंगी ऋषि को भी बुलाया . श्रृंगी ऋषि एक पुण्य आत्मा थे . जहां वे पांव रखते थे वहां यश होता था . सुमंत ने श्रृंगी को मुख्य ऋत्विक बनने के लिए कहा . दशरथ ने आयोजन करने का आदेश दिया .
पहले तो श्रृंगी ऋषि ने यज्ञ करने से इंकार किया . लेकिन बाद में शांता के कहने पर ही श्रृंगी ऋषि राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करने के लिए तैयार हुए थे . लेकिन दशरथ ने केवल श्रृंगी ऋषि को ही आमंत्रित किया . लेकिन श्रृंगी ऋषि ने कहा कि मैं अकेला नहीं आ सकता . मेरी पत्नी शांता को भी आना पड़ेगा . श्रृंगी ऋषि की यह बात जानकर राजा दशरथ विचार में पड़ गए , क्योंकि उनके मन में अभी तक दहशत थी कि कहीं शांता के अयोध्या में आने से अकाल ना पड़ जाए . तब पुत्र कामना में आतुर दशरथ ने संदेश भिजवाया कि शांता भी आ जाए . शांता और श्रृंगी ऋषि अयोध्या पहुंचे . शांता के पहुंचते ही अयोध्या में वर्षा होने लगी और फूल बरसने लगे . शांता ने दशरथ के चरण स्पर्श किए . दशरथ ने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि ' हे देवी , आप कौन हैं ? आपके पांव रखते ही चारों ओर वसंत छा गया है . ' जब माता पिता ( दशरथ और कौशल्या ) विस्मित थे कि वो कौन है ? तब शांता ने बताया कि ' वो उनकी पुत्री शांता है ' दशरथ और कौशल्या यह जानकर अधिक प्रसन्न हुए क्योंकि वर्षों बाद दोनों ने अपनी बेटी को देखा था । इसके बाद श्रृंगी ऋषि शांता के साथ वन में वापस चले आएं । इस दंडकारण्य को लोग आज सिहावा के नाम से जानते हैं ।
राम वन गमन पथ
जब भगवान श्री राम, माता सीता और लक्ष्मण 14 वर्ष वनवास के लिए निकले थे तब इस मार्ग से होकर भी गुजरे थे छत्तीसगढ़ में राम वन गमन पथ के प्रथम चरण के लिए 9 स्थानों को चिन्हित किया गया है, जिसमें सिहावा का श्रृंगी ऋषि पर्वत भी शामिल है।
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