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Monday, September 20, 2021

श्राद्ध का मतलब है पितरों के प्रति श्रद्धा भाव - अरविन्द तिवारी



 रायपुर -- हिन्दू धर्म में श्राद्ध का विशेष महत्व है , श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है जिसका मतलब है पितरों के प्रति श्रद्धा भाव। हिंदू मान्यताओं के अनुसार देह त्याग करने के बाद हमारे पुरखे परलोक सिधार जाते हैं और उनकी आत्मा की तृप्ति के लिये सच्ची श्रद्धा के साथ तर्पण किया जाता है , उसे ही श्राद्ध कहा जाता है। इस संबंध में विस्तृत जानकारी देते हुये अरविन्द तिवारी ने बताया कि मृत्यु के देवता यमराज श्राद्ध पक्ष में जीवात्मा को मुक्ति प्रदान कर देते हैं , ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। श्राद्ध कर्म एवं पिंड दान करने से पितर अति प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद प्रदान करते हैं। पितरों के आशीर्वाद से घर-परिवार में धन-दौलत , सुख-सुविधा , मान-सम्मान और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है। भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों तक का समय श्राद्धपक्ष कहलाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार पूर्वजों के आत्मा की शांति और उनके तर्पण के निमित्त श्राद्ध किया जाता है। प्रत्येक मनुष्य को लिये देवऋण , ऋषिऋण और पितृऋण रहता है जिसमें मनुष्य स्वाध्याय करके ऋषिऋण से , यज्ञ करके देवऋण से और श्राद्ध , तर्पण करके पितृऋण से मुक्त होता है। श्राद्धपक्ष में पितरों का तर्पण करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है और मोक्ष प्राप्त होता है। श्राद्ध में पितरों का तर्पण करने के लिये तिल , जल , चाँवल , कुशा , गंगाजल आदि का इस्तेमाल जरूर करना चाहिये। श्राद्ध के दौरान तुलसी और पीपल के पेड़ पर जल चढ़ायें और सूर्यदेवता को सूर्योदय के समय अर्ध्य जरूर दें। पितरों को याद करने , तर्पण एवं श्राद्ध करने के लिये 15 दिन का समय तय किया गया है। पितृपक्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा और आश्विन माह कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होते हैं। इस साल पितृपक्ष आज 20 सितंबर पूर्णिमा से शुरू होकर 06 अक्टूबर विसर्जन तक चलेगा। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार श्राद्ध पक्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक कुल 16 दिनों में हर दिन अलग-अलग लोगों के लिये श्राद्ध होता है , इसका प्रत्येक दिन महत्वपूर्ण है। वैसे अक्सर यह होता है कि जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई है , श्राद्ध में पड़ने वाली उस तिथि को उसका श्राद्ध किया जाता है। मान्यता है पितृ पक्ष के दौरान हमारे पूर्वज सूक्ष्म रूप में धरती पर आकर अपने परिवार के लोगों के हाथों से तर्पण स्वीकार करते हैं। इसलिये इस दौरान पिंडदान , तर्पण , श्राद्ध , हवन और अन्नदान का विशेष महत्व माना जाता है। इस दौरान पितरों की आत्मा की शांति के लिये पिंडदान करने का भी विधान बताया गया है। मान्यता है जो लोग इस दौरान सच्ची श्रद्धा से अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं उनके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। पितृ पक्ष में दान- पुण्य करने से कुंडली में पितृ दोष दूर हो जाता है। ऐसा भी कहा जाता है जो लोग श्राद्ध नहीं करते उनके पितरों की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती और पितृ दोष लगता है। इस कारण पितृ दोष से मुक्ति के लिये पितरों का श्राद्ध जरूरी माना जाता है।


किसको करना चाहिये श्राद्ध ?


पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके बड़े पुत्र को है लेकिन यदि जिसके पुत्र ना हो तो उसके सगे भाई या उनके पुत्र श्राद्ध कर सकते हैं। यह कोई नहीं हो तो उसकी पत्नी कर सकती है। हालांकि जो कुंवारा मरा हो तो उसका श्राद्ध उसके सगे भाई कर सकते हैं और जिसके सगे भाई ना हो , उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई ना होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो , वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है।


16 तिथियों का महत्व क्या है ?


श्राद्ध की 16 तिथियां  पूर्णिमा ,प्रतिपदा ,द्वि‍तीया , तृतीया ,चतुर्थी ,पंचमी ,षष्ठी , सप्तमी ,अष्टमी ,नवमी ,दशमी , एकादशी , द्वादशी ,त्रयोदशी , चतुर्दशी और अमावस्या होती है। इस वर्ष कोई भी तिथि डबल नही पड़ रहा है बल्कि लगातार है। उक्त किसी भी एक तिथि में व्यक्ति की मृत्यु होती है चाहे वह कृष्ण पक्ष की तिथि हो या शुक्ल पक्ष की। श्राद्ध में जब यह तिथि आती है तो जिस तिथि में व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस तिथि में उसका श्राद्ध करने का विधान है। इसके अलावा प्रतिपदा को नाना-नानी का श्राद्ध कर सकते हैं। जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई है उनके लिये पंचमी तिथि का श्राद्ध किया जाता है। सौभाग्यवती स्त्री की मृत्यु पर नियम है कि उनका श्राद्ध नवमी तिथि को करना चाहिये क्योंकि इस तिथि को श्राद्ध पक्ष में अविधवा नवमी माना गया है। यदि माता की मृत्यु हो गई हो तो उनका श्राद्ध भी नवमी तिथि को कर सकते हैं। जिन महिलाओं की मृत्यु की तिथि मालूम ना हो , उनका भी श्राद्ध नवमी को किया जाता है। इस दिन माता एवं परिवार की सभी स्त्रियों का श्राद्ध किया जाता है , इसे मातृ नवमी श्राद्ध भी कहा जाता है। इसी तरह एकादशी तिथि को सन्यास लेने वाले व्य‍‍‍क्तियों का श्राद्ध करने की परंपरा है जबकि संन्यासियों के श्राद्ध की ति‍थि द्वादशी (बारहवीं) भी मानी जाती है। श्राद्ध महालय के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को बच्चों का श्राद्ध किया जाता है। जिनकी मृत्यु अकाल हुई हो या जल में डूबने , शस्त्रों के आघात या विषपान करने से हुई हो ,उनका चतुर्दशी की तिथि में श्राद्ध किया जाना चाहिये। सर्वपितृ अमावस्या पर ज्ञात-अज्ञात सभी पितरों का श्राद्ध करने की परंपरा है। इसे पितृविसर्जनी अमावस्या, महालय समापन आदि नामों से जाना जाता है। इस दिन हर कोई अपने पूर्वजों का श्राद्ध व पितृ तर्पण कर सकता है इसलिये इस अमावस्या को बहुत खास माना जाता है।


पितृ पक्ष की पौराणिक कथा


पौराणिक कथाओं के अनुसार जब महाभारत के युद्ध में कर्ण का निधन हो गया था और उनकी आत्मा स्वर्ग पहुंच गई तो उन्हें रोजाना भोजन की बजाय खाने के लिये सोना और गहने दिये जाते थे। इस बात से निराश होकर कर्ण की आत्मा ने इंद्रदेव से इसका कारण पूछा। तब इंद्र ने कर्ण को बताया कि आपने अपने पूरे जीवन में सोने के आभूषणों को दूसरों को दान किया लेकिन कभी भी अपने पूर्वजों को भोजन नहीं दिया। तब कर्ण ने उत्तर दिया कि वह अपने पूर्वजों के बारे में नहीं जानता है और उसे सुनने के बाद  भगवान इंद्र ने उसे 15 दिनों की अवधि के लिये पृथ्वी पर वापस जाने की अनुमति दी ताकि वह अपने पूर्वजों को भोजन दान कर सके। तब से इसी 15 दिन की अवधि को पितृ पक्ष के रूप में जाना जाता है।

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