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Sunday, June 21, 2020

पुरी शंकराचार्य ने रथयात्रा निर्णय पर पुनर्विचार करने सुप्रीम कोर्ट को लिखा पत्र


अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
जगन्नाथपुरी -- पूर्वाम्नाय गोवर्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी ने उच्चतम न्यायालय को रथयात्रा निर्णय पर पुनर्विचार करने हेतु पत्र लिखा है। जिसमें शंकराचार्य ने कहा कि भगवान् श्रीमन्नारायण से हमारी वंशपरम्परा और गुरुपरम्परा आरम्भ होती है। भगवत्पाद आदि शंकराचार्य महाभाग दसवें स्थान पर सिद्ध होते हैं। श्रीमन्नारायण की दृष्टि से विचार करें तो १ अरब , ९७ करोड़ , २९ लाख , ४९ हजार , १२० वर्षों की हमारी परम्परा है। भगवत्पाद आदि शंकराचार्य महाभाग की दृष्टि से विचार करें तो २५०३ वर्षों की हमारी प्रशस्त परम्परा है। पुरी पीठ के हम १४५  वें मान्य शंकराचार्य हैं। हमको परम्परा से यह प्रशिक्षण प्राप्त है कि देश -- काल -- परिस्थिति को देखते हुए धर्म का निर्णय लेना चाहिए। मैं एक संकेत करना चाहता हूं कि लोभ , भय , कोरी -- भावुकता और अविवेक के वशीभूत हो कर हम एक वाक्य भी नहीं बोलते हैं। किसी आस्तिक महानुभाव की यह भावना हो सकती है कि अगर इस विभीषिका की दशा में रथ --यात्रा की स्वीकृति दी जावे तो श्रीजगन्नाथाजी उन्हें क्षमा नहीं करेंगे , लेकिन प्रशस्त परम्परा का विलोप होने पर क्या क्षमा कर देंगे , जगन्नाथजी ।इस पर भी विचार करना चाहिए। ऐसी स्थिति में प्राप्त विभीषिका को देखते हुए और शास्त्रसम्मत प्राचीन प्रथा को देखते हुए निर्णय की आवश्यकता थी। 
मैं एक संकेत कर देना चाहता हूं कि भगवत्पाद आदि शंकराचार्य महाभाग का प्रादुर्भाव प्रामाणिक रीति से जब हुआ , तब विश्व में कोई क्रिश्चियनतन्त्र , मुस्लिमतन्त्र , पारसीतन्त्र आदि नहीं था । १/४ विश्व एक शंकराचार्य के अधिकार क्षेत्र में आता था । आज भी श्रीजगन्नाथ -- मन्दिर श्रीपुरीपीठ के शंकराचार्य के ही साक्षात् क्षेत्र में है। धार्मिक और आध्यात्मिक विषय के न्यायाधीश तो हम लोग ही माने जाते हैं, परम्परा से और मान्य उच्चतम -- न्यायालय के अनुसार भी । ऐसी स्थिति में न्यायालय का भी यह दायित्व होता है कि धार्मिक -- आध्यात्मिक क्षेत्र में हम लोगों से परामर्श ही नहीं , मार्गदर्शन लिया जाए। मैंने जो संकेत किया था ; मान्य उच्चतम -- न्यायालय ने जो शुद्ध भावना का परिचय दे कर प्राप्त विभीषिका से बचने के लिए निर्णय लिया है , उसमें भावना पर आक्षेप नहीं करता , लेकिन सूझ -- बूझ तो प्रर्याप्त नहीं है । इस लिए कोई व्यक्ति का प्रश्न न उठा करके विवेक का समादर करते हुए मान्य उच्चतम -- न्यायालय के न्यायाधीश जो मेरे लाड़ले -- प्यारे हैं ; उन्हें मैं एक अनुरोध करता हूं कि वे प्रशस्त ढंग से न्याय प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त करें।

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