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Wednesday, February 17, 2021

त्यागमय तपोमय जीवन का प्रकाशक सनातन धर्म -- पुरी शंकराचार्य

 



अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट 


जगन्नाथपुरी- ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज त्यागमय , तपोमय , योगमयजीवन की अद्भुत महत्ता तथा कार्यसिद्धि की अमोघ विधा एवं व्यवहार शुद्धि से परमार्थ सिद्धि के संबंध में चर्चा करते हुये संकेत करते हैं कि सनातन धर्म में व्यवहार शुद्धि से परमार्थ सिद्धि का सदुपदेश है। स्नान , भोजन , शयन , यज्ञ , दान , तप आदि सकल लौकिक और पारलौकिक व्यवहार भगवत्समर्पण की भावना से सम्पादित होने के कारण स्नानादि की केवल भोगरूपता चरितार्थ नहीं है, अपितु योग और भक्तिरुपता सिद्ध है। अभिप्राय यह है कि सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वेश्वर से अभिव्यक्त वेदों के परम तात्पर्य स्वयं सच्चिदानन्दस्वरुप परब्रह्म ही हैं। उनके नि:श्वासभूत शब्दब्रह्मात्मक वेद कर्मों के अभिव्यञ्जक संस्थान हैं । कर्म यज्ञों के समुद्भव में हेतु है , यज्ञ पर्जन्य में हेतु है । पर्जन्य से अन्न का उद्भव होता है , अन्न से प्राणियों का उद्भव होता है। इस प्रकार अधोमुख कर्म का पर्यवसान जन्म देने और लेने की प्रवृत्ति की परिपुष्टि है ; जबकि ऊर्ध्वमुख कर्म का पर्यवसान वेदवेद्य सच्चिदानन्दस्वरुप परब्रह्म की समुपलब्धि है। जीव जब निज वास्तवरूप अक्षरसंज्ञक ब्रह्म को जीवन का लक्ष्य निर्धारित करता है , तब तदर्थ कर्म के कारण ब्रह्म और जीव के मध्य मात्र वेदबीज वेदार्थाभिव्यञ्जक परब्रह्मप्रतिपादक प्रणवात्मक वेदरूप घाटी शेष रहती है। उसे सुगमतापूर्वक पारकर ब्रह्मजिज्ञासु ब्रह्ममात्र शेष रहता है। सनातनियों के मार्गदर्शक आप्तकाम, परम निष्काम सत्पुरुष लोभ , भय , कोरी भावुकता और अविवेक से सर्वथा अतीत होते हैं , वे स्वार्थलोलुप और अदूरदर्शी नहीं होते। वे सर्वहितैषी , सर्वहितज्ञ , सर्वहित में तत्पर और सर्वसमर्थ ईश्वरकल्प होते हैं। वे नीति , प्रीति , स्वार्थ तथा परमार्थ में सामञ्जस्य साधकर सम , सन्तोष , दया और विवेकपूर्वक व्यवहार के पक्षधर होते हैं , यही कारण है कि सनातनियों का व्यवहार सर्वसुमङ्गल होता है। सनातन धर्म में जो जहाँ है , उसे वहीं से उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त करने की स्वस्थ विधा है, अत: पन्थगत संकीर्णता तथा अधिकार और अभिरुचि के उच्छेद का इसमें समादर नहीं है। सनातन धर्म में मर्यादा , मनोविज्ञान , शरीरविज्ञान , संस्कारविज्ञान , भोजन -- वस्त्र -- आवास -- शिक्षा -- रक्षा -- स्वास्थ्य -- सेवा -- न्याय -- यातायात -- विवाह -- कृषि -- गणित -- लोक -- परलोक -- सृष्टि -- स्थिति -- संहृति -- निग्रह -- अनुग्रह आदि विविध विज्ञानों का सन्निवेश है। अतः आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक समग्र विकास में यह अमोघ हेतु है। पतन का मूल शिक्षापद्धति की नीति विहीनता तथा अध्यात्मविहीनता है । सनातन धर्म में उस शिक्षण संस्थान और शिक्षित को पापनिष्ठ धर्मद्रोही उद्घोषित किया गया , जिसके द्वारा केवल अर्थ और काम या धन और मान के लिये विद्या तथा कला का समग्र उपयोग और विनियोग सुनिश्चित है। सर्वपोषण में प्रयुक्त तथा विनियुक्त त्यागमय तपोमय जीवन का प्रेरक तथा प्रकाशक सनातन धर्म है ।

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