बालाघाट सिवनी के किसानों को चनोली कीफसल से मिल सकती है नई पहचान, जिससे होगा किसानो को लाचानी-चनोली -फसल एक गुण अनेक
बालाघाट -जिले के चिन्नौर चावल को जी.आई टैग के माध्यम से देश विदेश में पहचान मिलने से चिन्नौर उगाने वाले किसानों की आय में वृद्धि हुई हैं। इसी दिशा में जिला प्रशासन, कृषि महाविद्यालय बालाघाट, व कृषि विभाग चनोली के महत्व को देखते हुए, पुराने एतिहासिक प्रमाणों के आधार पर इसे भी पहचान दिलाने व इसका रकबा बढ़ाने के लिए प्रयासरत है।
चनोली के विषय में डॉ. उत्तम बिसेन ने बताया कि इसे चानी, सफेद चनी या चनई के नाम से भी जाना जाता है यह बहुत छोटे आकार वाली सफेद चने की प्राचीन किस्म है, जिसे मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले के समस्त विकासखण्डों तथा सिवनी जिले के बरघाट, केवलारी, कुरई व सिवनी विकासखण्ड के आदिवासी व अन्य किसान विशेष स्वाद, पौष्टिकता, व औषधीय महत्व के कारण पारम्परिक रूप से छोटे-छोटे रकबे में उगाते आ रहे है। परीक्षण के आधार पर चानी में काबुली और देशी चने की तुलना में एन्टीआक्सीडेंट कम्पाउण्ड जैसे फ्लेवोनाइट्स, टोटल फिनोंल्स, एल्कॉलाइड्स, टर्पेनॉइट्स तथा प्रोटीन, आयरन एवं कैल्शियम अधिक मात्रा में पाये जाते हैं।
डॉ बिसेन ने बताया कि काबुली और देशी चना दोनों की तुलना में चानी का पौधा बौना और झाड़ीनुमा, तना पतला, पत्तियाँ आकार में छोटी, फूल छोटे सफेद रंग के व दाने का आकार बहुत छोटा होता हैं। इसके 100 दानों का वजन 8-10 ग्राम तक होता है, वहीं पर काबुली चने का 52-55 ग्राम व देशी चने का 15-17 ग्राम होता है व बाजार में चनोली के नाम से मिलने वाले मंझोली चने के 100 दानों का वनज 16-18 ग्राम होता है। चनोली फसल की परपिक्वता अवधि अधिक होती हैं। पुराने समय में चानी उगाने वाले ज्यादातर किसान रबी के मौसम में उथले तालाबों (बोड़ी/पनकुआ) जैसे जैसे सूखते जाते है वैसे वैसे सूखे स्थानो पर इसकी बुआई करते जाते थे, तथा घाटों पर कम अवधि की धान फसल की कटाई उपरांत बची हुई नमी में बारानी अवस्था में उगाते है।
डॉ बिसेन ने बताया कि अब इसकी खेती मैदानी क्षेत्रों में भी की जाने लगी है, चानी की खेती के लिए खेतों की विशेष तैयारी, पोषक तत्वों की कोई विशेष आवश्यकता नहीं होती। परम्परागत दलहनी फसल होने के कारण इसमें कीट एवं रोगो के प्रति इसकी प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है । इस कारण रासायनिक दवाइयों के उपयोग की आवश्यकता कम होती है। इसकी उपज क्षमता लगभग 6 से 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है जोकि सामान्य चने की तुलना में लगभग आधी होती है किन्तु फसल मूल्य उसी अनुपात में किसानों को नही मिल पाता जिस कारण कृषक इसे सिर्फ घरेलू उपयोग व दवा के रूप में शौकिया तौर पर ही लगाते है। पुराने लोगों कि मान्यता अनुसार यह गरम प्रकृति की होती है जिसके कारण इसे वात रोग से ग्रसित लोगो को सेवन करने की सलाह दी जाती हैं, कब्ज, बवासिर, चर्मरोग, एवं वायुविकार के उपचार में भी अन्य औषधियों के साथ वैधों व आर्युवेदिक चिकित्सकों के द्वारा इसके सेवन की अनुशंसा की जाती है।
कृषक खीरसागर पारधी ग्राम मोरिया बालाघाट ने बताया कि उनके पूर्वजों के जमाने से प्रतिवर्ष दो तीन एकड़ इसकी खेती करते है और यह हाथो हाथ बिक जाती है। उसी प्रकार ग्राम सिंगोड़ी किरनापुर के कृषक वेदप्रकाश पटेल चनोली की खेती कई वर्षो से कर रहे है उपज कम है परन्तु पास के लोग दवाई मे उपयोग के लिए खरीद कर ले जाते है। ग्राम कांचना बरघाट जिला सिवनी के कृषक डॉ. अयोघ्या प्रसाद भोयर जी ने बताया कि सामाजिक रीति रिवाजों में और औषधीय महत्व होने के कारण किसान छोटे छोटे क्षेत्र में चनोली उगाते है।
No comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box.