मोहन द्विवेदी की रिपोर्ट
जांजगीर चांपा - कृषि विज्ञान केंद्र में फसल अवशेष प्रबंधन पर एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया । खरीफ फसल की कटाई अब कुछ दिनों बाद होने वाली है , चूकि मजदूर की उपलब्धता ना होने के कारण आजकल कंबाइन हार्वेस्टर से कटाई की जाती है। अतः पराली/नरई की लंबाई खेतों पर अत्यधिक छूट जाती है, रबी फसल लगाने हेतु इनका प्रबंधन किया जाना अत्यंत आवश्यक है। इस हेतु छात्रों व कृषकों के लिये फसल अवशेष प्रबंधन पर कार्यशाला का आयोजन रखा गया । केंद्र के प्रमुख डॉ० राजीव दीक्षित फसल अवशेष प्रबंधन हेतु मशीनों के उपयोग के साथ-साथ वेस्ट डीकंपोजर, ट्राइकोडरमा आदि का प्रयोग किया जाना बताया। शशिकांत सूर्यवंशी सस्य वैज्ञानिक ने वेस्ट डीकंपोजर बनाने की संपूर्ण जानकारी प्रदान की। दो सौ लीटर के प्लास्टिक ड्रम में दो किलो ग्राम गुड़ , एक किलो ग्राम बेसन व गाजियाबाद से निर्मित वेस्ट डीकंपोजर की डिब्बी से 200 लीटर जल में घोला जाना तत्पश्चात उसे सूती कपड़े से ढककर छायादार स्थल में रखा जाना बताया। चौबीस घंटे में एक बार इस मिश्रण को लकड़ी के डंडे की सहायता से हिलाया जाता है , आठ से नौ दिन पश्चात उपरोक्त मिश्रण उपयोग हेतु तैयार हो जाता है। कृषि महाविद्यालय से आए सस्य वैज्ञानिक डॉ० मनीष कुमार ने बताया कि फसल उत्पादन का दो से तीन गुना फसल अवशेष पैदा होते हैं अत: उसका प्रबंधन एक चुनौती है उसे विभिन्न बताई गई विधियों से प्रबंधन किया जाना आवश्यक है। इसी कड़ी में बताया कि ट्राइकोडरमा एक बेहतर विकल्प है। केंद्र की इंजीनियर डॉ आशुलता नेताम ने अपनी प्रस्तुति में विभिन्न यंत्रों के उपयोग से फसल अवशेष प्रबंधन में किये जाने की जानकारी प्रदान की उन्होंने हैप्पी सीडर स्ट्रा रीपर मल्चर व श्रेडर आदि की कार्यशैली के बारे में विस्तृत चर्चा की। कार्यक्रम के अंत में कृषि महाविद्यालय से पहुंची श्रीमती मंजू टंडन ने फसल अवशेष प्रबंधन की महत्ता पर प्रकाश डाला। कार्यशाला में 53 छात्र छात्राओं व 12 कृषक व कृषक महिलाओं ने भाग लिया। कार्यक्रम को सफल बनाने में श्रीमती महेश्वरी उपासक , जे०पी० पटेल , अमित ,मनीष और विद्याभूषण साहू का विशेष योगदान रहा।
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