मानगढ़ धाम जनजातियों के तप , त्याग और देशभक्ति का प्रतिबिंब - पीएम मोदी
अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
बांसवाड़ा ( मानगढ़) - मानगढ़ धाम की सेवा मेरा सौभाग्य है , ये वीरों की तपस्या और त्याग का प्रतीक है। मुझे एक बार फिर से मानगढ़ धाम में आकर शहीद आदिवासियों के सामने सिर झुकाने का मौका मिला है। आजादी के अमृत महोत्सव में हम सभी का मानगढ़ धाम आना हम सभी के लिये प्रेरक और सुखद है। मानगढ़ धाम जनजातीय वीर-वीरांगनाओं के तप , त्याग , तपस्या और देशभक्ति का प्रतिबिंब है। ये राजस्थान , गुजरात , मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की साझी विरासत है। भारत का इतिहास वर्तमान और भविष्य आदिवासी समाज के बिना पूरा नहीं होता। गोविंद गुरु जैसे महान स्वतंत्रता सेनानी भारत की परंपराओं और आदर्शों के प्रतिनिधि थे। वे किसी रियासत के राजा नहीं थे , लेकिन वे लाखों आदिवासियों के नायक थे। अपने जीवन में उन्होंने अपना परिवार खो दिया , लेकिन हौसला कभी नहीं खोया। उन्होंने एकता और भाईचारे का संदेश दिया और आदिवासी समाज के लिये लड़ाई लड़ी। भारत का भविष्य आदिवासी समाज के बिना अधूरा है।
उक्त बातें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आज "मानगढ़ की गौरव गाथा" कार्यक्रम में भील आदिवासियों और अन्य जनजातियों के सदस्यों की सभा को संबोधित करते हुये कही। पीएम ने कहा कि पहले यह पूरा क्षेत्र वीरान था लेकिन आज चारों तरफ हरियाली है। आप लोगों ने इसे हरा भरा क
र दिया , इसके लिये आप सभी का अभिनन्दन है। यहां हुये विकास से गोविन्द गुरु के विचारों का भी प्रचार हुआ। यहां 109 साल पहले 17 नवंबर को मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन जो नरसंहार हुआ था , वह अंग्रेजों की क्रूरता की पराकाष्ठा थी। हजारों महिलाओं और युवाओं को मौत के घाट उतार दिया गया। आजादी के बाद लिखे गये इतिहास में उनके बलिदान को जगह नहीं मिली। आज अमृत महोत्सव में उस भूल को सुधारा जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हमारी आजादी की लड़ाई का पग-पग , इतिहास का पन्ना-पन्ना आदिवासी वीरता से भरा पड़ा है। गोविंद गुरु का वह चिंतन , वह बोध , आज भी उनकी धुणी के रूप में मानगढ़ धाम में अखंड रूप से प्रदीप्त हो रहा है। उनकी सम्प सभा यानि समाज के हर तबके में सम्प भाव पैदा हो , सम्प सभा के आदर्श आज भी एकजुटता , प्रेम और भाईचारा की प्रेरणा दे रहे हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि वर्ष 1780 में संथाल में तिलका मांझी के नेतृत्व में दामिन संग्राम लड़ा गया। वर्ष 1830-32 में बुधू भगत के नेतृत्व में देश लरका आंदोलन का गवाह बना। वर्ष 1855 में आजादी की यही ज्वाला सिधु-कान्हू क्रांति के रूप में जल उठी। भगवान बिरसा मुंडा ने लाखों आदिवासियों में आजादी की ज्वाला प्रज्ज्वलित की। आज से कुछ दिन बाद ही 15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर देश जनजातीय गौरव दिवस मनायेगा। आदिवासी समाज के अतीत और इतिहास को जन-जन तक पहुंचाने के लिये आज देश भर में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को समर्पित विशेष म्यूजियम बनाये जा रहे हैं। देश में आदिवासी समाज का विस्तार और भूमिका इतनी बड़ी है कि हमें उसके लिये समर्पित भाव से काम करने की जरूरत है। राजस्थान और गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर और ओडिशा तक विविधता से भरे आदिवासी समाज की सेवा के लिये आज देश स्पष्ट नीति के साथ काम कर रहा है। देश में वन क्षेत्र भी बढ़ रहे हैं , वन संपदा भी सुरक्षित की जा रही है। साथ ही आदिवासी क्षेत्र डिजिटल इंडिया से भी जुड़ रहे हैं। पारंपरिक कौशल के साथ-साथ आदिवासी युवाओं को आधुनिक शिक्षा के भी अवसर मिले , इसके लिये एकलव्य आदिवासी विद्यालय भी खोले जा रहे हैं।राजस्थान और गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर और उड़ीसा तक विविधता से भरे आदिवासी समाज की सेवा के लिए आज देश स्पष्ट नीति के साथ काम कर रहा है।
मानगढ़ धाम राष्ट्रीय स्मारक घोषित
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आज राजस्थान के बांसवाड़ा जिले में स्थित मानगढ़ धाम पहुंचे। यहां उन्होंने ‘मानगढ़ की गौरव गाथा’ कार्यक्रम में शिरकत की। पीएम ने भील स्वतंत्रता सेनानी गोविंद गुरु को श्रद्धांजलि दी। उन्होंने धूणी पर पहुंचकर पूजन किया और आरती भी उतारी। यहां मानगढ़ धाम को पीएम मोदी ने राष्ट्रीय स्मारक घोषित करते हुये वर्ष 1913 में ब्रिटिश सेना की गोलीबारी में जान गंवाने वाले आदिवासियों को श्रद्धांजलि अर्पित की। राजस्थान सरकार ने 27 मई 1999 को नरसंहार में मारे गये आदिवासियों की याद में शहीद स्मारक बनवाया था और अब इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया है।इस दौरान प्रधानमंत्री के साथ राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र भाई पटेल भी मौजूद रहे।
मानगढ़ धाम का इतिहास
बांसवाड़ा से करीब 80 किमी दूर चारों तरफ से पहाड़ी और जंगलों से घिरा मानगढ़ धाम बसा है। मानगढ़ धाम को जलियांवाला बाग से छह साल पहले हुये आदिवासियों के नरसंहार के लिये जाना जाता है और इसे कभी-कभी "आदिवासी जलियांवाला" भी कहा जाता है।बांसवाड़ा जिले में मध्यप्रदेश और गुजरात सीमा से सटा मानगढ़ धाम अमर बलिदान का साक्षी है , जहां 17 नवंबर 1913 को वार्षिक मेले का आयोजन होने जा रहा था। वनवासियों के नेता गोविन्द गुरु के आह्वान पर उस कालखंड में पड़े अकाल से प्रभावित हजारों वनवासी खेती पर लिये जा रहे कर को घटाने , धार्मिक परम्पराओं का पालना की छूट के साथ बेगार के नाम पर परेशान किये जाने के खिलाफ एकजुट हुये थे। तत्कालीन अंग्रेजी शासन ने उनकी सुनवाई करने के बजाए मानगढ़ धाम को चारों ओर से घेर लिया और मशीनगन और तोपें तैनात कर दी। अंग्रेजी सरकार ने गोविन्द गुरु तथा वनवासियों को पहाड़ी छोड़ने के आदेश दिये लेकिन वे अपनी मांग पर अड़े रहे। जिस पर अंग्रेजी शासन की ओर से मेजर हैमिल्टन और उनके तीन अफसरों ने वनवासियों पर गोलीबारी के आदेश दिये और एकाएक हुई फायरिंग में हजारों वनवासी मारे गये। अलग-अलग पुस्तकों में शहीद वनवासियों की संख्या पंद्रह सौ से दो हजार तक बताई जाती है। अंग्रेजी शासन ने वनवासियों के नेता गोविन्द गुरु को हिरासत में ले लिया और अदालत ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई। हालांकि बाद में अदालत ने उनकी फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था। सजा काटने के बाद गोविन्द गुरु वर्ष 1923 में जेल से रिहा हुये और भील सेवा सदन के माध्यम से आजीवन लोक सेवा में लगे रहे। 30 अक्टूबर 1931 में उनके निधन के बाद मानगढ़ धाम में उनका अंतिम संस्कार किया गया और वहां समाधि बनाई गई। उनकी समाधि पर हर साल मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर लाखों वनवासी आदिवासी भील समाज उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करने उमड़ता है।
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