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Thursday, November 23, 2023

अमोद्य पुण्य फलदाई है देवउठनी एकादशी - सीमा तिवारी

 अमोद्य पुण्य फलदाई है देवउठनी एकादशी - सीमा तिवारी 



अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट 


रायपुर - हिन्दू धर्म में सबसे शुभ और पुण्यदायी और सभी व्रतों में श्रेष्ठ देवउठनी एकादशी कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष यानि आज मनायी जाती है। इसे हरिप्रबोधिनी , देवोत्थान , देवप्रबोधिनी और ठिठुअन एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी विवाह का धार्मिक अनुष्ठान भी किया जाता है। यह व्रत सभी प्रकार के पापों से मुक्ति दिलाने के साथ साथ सभी प्रकार की मनोकामनाओं को पूर्ण करता है। इस एकादशी का फल अमोघ पुण्यफलदायी बताया गया है। इस दिन वैष्णवों के साथ साथ स्मार्त श्रद्धालु भी बड़ी आस्था के साथ व्रत रखते हैं , इस दिन उपवास रखना बेहद शुभ माना जाता है वहीं निर्जल या जलीय पदार्थों पर उपवास रखना विशेष फलदायी है। एकादशी व्रत को व्रतराज की उपाधि दी गई है , क्योंकि यह सभी व्रतों में सर्वश्रेष्ठ है और इससे सौभाग्य की प्राप्ति होती है।हिन्दू धर्म में एकादशी का व्रत बेहद महत्वपूर्ण होता है। वैसे तो पूरे वर्ष में चौबीस एकादशी होती हैं , लेकिन अगर किसी वर्ष मलमास है तो इनकी संख्या बढ़कर छब्बीस हो जाती है। कहा जाता है कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देवशयनी के दिन से श्रीहरि क्षीरसागर में विश्राम करने चले जाते हैं। चतुर्मास में उनके विश्राम करने तक कोई भी शुभ कार्य नही किये जाते हैं। चातुर्मास के समापन कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन देवउठनी-उत्सव होता है , इस एकादशी को ही देवउठनी कहा जाता है। देवउठनी एकादशी के दिन चतुर्मास का अंत हो जाता है और शादी-विवाह इत्यादि मांगलिक कार्य फिर से शुरू हो जाते हैं। आज एकादशी के शुभ योग की बात करें तो ये दिन पूजा पाठ के लिये उत्तम माना जाता है। इस बार रवि योग , सिद्धि योग और सर्वार्थ सिद्धि योग भी बनने जा रहे हैं। देवउठनी एकादशी के दिन व्रत रखकर भगवान विष्णु को जगाने का आह्वान कर भगवान विष्णु एवं माँ लक्ष्मी की पूजा आराधना की जाती है , इसके प्रभाव से बड़े-से-बड़ा पाप भी क्षण मात्र में ही नष्ट हो जाता है। इस दिन मंत्रोच्चारण, स्त्रोत पाठ , शंख घंटा ध्वनि एवं भजन-कीर्तन द्वारा देवों को जगाने का विधान है। पदम् पुराण में वर्णित एकादशी महात्यम के अनुसार देवोत्थान एकादशी व्रत का फल एक हज़ार अश्वमेघ यज्ञ और सौ राजसूय यज्ञ के बराबर होता है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान और भगवान विष्णु के पूजन का विशेष महत्त्व है। दान-पुण्य करने से इसका महत्त्व और बढ़ जाता है। इस व्रत को करने से जन्म-जन्मांतर के पाप क्षीण हो जाते हैं तथा जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। द्राक्ष , ईख , अनार , केला , सिंघाड़ा आदि ऋतुफल श्री हरि को अर्पण करने से उनकी कृपा सदैव बनी रहती है। इसके बाद चरणामृत अवश्य ग्रहण करना चाहिये। ऐसा माना जाता है कि चरणामृत सभी रोगों का नाश कर अकाल मृत्यु से रक्षा करता है।


तुलसी-शालिग्राम विवाह का महत्व


कार्तिक में स्नान करने वाली स्त्रियां एकादशी को भगवान विष्णु के रूप शालिग्राम एवं विष्णुप्रिया तुलसी का विवाह संपन्न करवाती हैं। पूर्ण रीति-रिवाज से तुलसी वृक्ष से शालिग्राम के फेरे एक सुन्दर मंडप के नीचे किये जाते हैं। विवाह में कई गीत, भजन व तुलसी नामाष्टक सहित विष्णुसहस्त्रनाम  के पाठ किये जाने का विधान है। धार्मिक मान्यता है कि निद्रा से जागने के बाद भगवान विष्णु सबसे पहले तुलसी की पुकार सुनते हैं इस कारण लोग इस दिन तुलसी का भी पूजन करते हैं और मनोकामना मांगते हैं। इसीलिये तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है। असल में तुलसी माध्यम है श्रीहरि विष्णु को जगाने का ,उनका आह्वान करने का। शास्त्रों के अनुसार तुलसी-शालिग्राम विवाह कराने से पुण्य की प्राप्ति होती है और दांपत्य जीवन में प्रेम बना रहता है।


तुलसी विवाह का है विधान


देवउठनी एकादशी के दिन श्रद्धालुओं द्वारा घरों में चाँवल आटे से चौक बनाया जाता है। तुलसी माता चौरा के चारो ओर गन्ने का मंडप बनाकर विधि विधान से पूजन किया जाता है। इस दिन तुलसी माता को महंदी, मौली धागा, फूल, चंदन, सिंदूर, सुहाग के सामान की वस्तुयें अक्षत, मिष्ठान और पूजन सामग्री आदि भेंट की जाती हैं। तुलसी और शालिग्राम का धूमधाम से विवाह कराया जाता है। आज के दिन तुलसी, शालिग्राम जी की पूजा होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, तुलसी विवाह का आयोजन करने पर एक कन्या दान के बराबर पुण्य प्राप्त होता है। भगवान शालिग्राम ओर माता तुलसी के विवाह के पीछे की एक प्रचलित कहानी है. दरअसल, शंखचूड़ नामक दैत्य की पत्नी वृंदा अत्यंत सती थी. शंखचूड़ को परास्त करने के लिये वृंदा के सतीत्‍व को भंग करना जरूरी था। माना जाता है कि भगवान विष्‍णु ने छल से रूप बदलकर वृंदा का सतीत्व भंग कर दिया और उसके बाद भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध कर दिया। इस छल के लिये वृंदा ने भगवान विष्‍णु को शिला रूप में परिवर्तित होने का शाप दे दिया। उसके बाद भगवान विष्‍णु शिला रूप में तब्‍दील हो गये और उन्‍हें शालिग्राम कहा जाने लगा। फिर वृंदा ने तुलसी के रूप में अगला जन्म लिया था , भगवान विष्‍णु ने वृंदा को आशीर्वाद दिया कि बिना तुलसी दल के उनकी पूजा कभी संपूर्ण नहीं होगी। भगवान शिव के विग्रह के रूप में शिवलिंग की पूजा होती है, उसी तरह भगवान विष्णु के विग्रह के रूप में शालिग्राम की पूजा की जाती है। यह भी मान्यता है कि वृँदा के सती होने के बाद उनकी राख से ही तुलसी के पौधे का जन्म हुआ था। इसके बाद तुलसी पौधे के साथ शालिग्राम के विवाह रचाने की परंपरा शुरु हुई।


                 श्रीमति सीमा तिवारी

        राष्ट्रीय संयोजक आनन्दवाहिनी

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