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Tuesday, February 20, 2024

मोक्ष दिलाने वाली है श्रीमद्भागवत कथा - दिलीप उपाध्याय

 मोक्ष दिलाने वाली है श्रीमद्भागवत कथा - दिलीप उपाध्याय 




अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट 


जाँजगीर चाँपा —  ऋंगी ऋषि के श्राप को पूरा करने के लिये तक्षक नामक सांप भेष बदलकर राजा परिक्षित के पास पहुंँचकर उन्हें डस लेते हैं जिससे जहर के प्रभाव से राजा का शरीर जल जाता है और मृत्यु हो जाती है। लेकिन श्रीमद्भागवत कथा सुनने के प्रभाव से राजा परीक्षित को मोक्ष प्राप्त होता है। परीक्षित को जब मोक्ष हुआ तो ब्रह्माजी ने अपने लोक में तराजू के एक पलडे़ में सारे धर्म और दूसरे में श्रीमद्भागवत को रखा तब भागवत का ही पलड़ा भारी रहा। 




अर्थात श्रीमद्भागवत ही सारे वेद पुराण शास्त्रों का मुकुट है , कथा के श्रवण प्रवचन करने से जन्मजन्मांतरों के पापों का नाश होता है और विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। 

                                            उक्त बातें समीपस्थ ग्राम धुरकोट में आयोजित श्रीमद्भागवत के अंतिम दिवस  भागवताचार्य पं० दिलीप उपाध्याय ( लाखासर वाले) ने श्रद्धालुओं को कथा श्रवण कराते हुये कही। इसके पहले अमरकथा का वर्णन करते हुये आचार्यश्री ने कहा भगवान  शंकरजी जब माता पार्वती को अमरकथा सुना रहे थे तब शिव-पार्वती के अलावा सिर्फ एक तोते का अंडा था जो कथा के प्रभाव से फूट गया उसमें से श्रीशुकदेव जी का प्राकट्य हुआ। कथा सुनते सुनते पार्वती जी सो गई वह पूरी कथा श्री शुकदेव जी ने सुनी और अमर हो गये। शंकर जी सुकदेवजी के पीछे उन्हें मृत्युदंड देने के लिये दौड़े। शुकदेवजी भागते भागते व्यासजी के आश्रम में पहुंचे और उनकी पत्नी के मुंह से गर्भ में प्रविष्ट हो गये। बारह वर्ष बाद श्री सुकदेव जी गर्भ से बाहर आये , इस तरह श्रीशुकदेवजी का जन्म हुआ। वहीं राजा परीक्षित के जन्म की कथा श्रवण कराते हुये आचार्यश्री ने कहा कि महाभारत युद्ध के पश्चात जब राजा परीक्षित माता के गर्भ में थे , उसी समय अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग परीक्षित की मां उत्तरा के गर्भ पर किया। असहनीय दर्द से कराहती उत्तरा ने जैसे ही भगवान श्रीकृष्ण को पुकारा , उन्होंने उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर स्वयं उस बालक की ब्रह्मास्त्र से रक्षा की। इनके जन्म लेने पर विद्वानों ने नवजात शिशु का नाम परीक्षित रखा क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं ही इस बच्चे की मां के गर्भ में रक्षा की थी। राजा बनने पर परीक्षित के कलयुग को दंड देने का प्रसंग सुनाते हुये व्यासाचार्य ने बताया कि कलयुग जब राजा परीक्षित की शरण में आकर अपने रहने के लिये स्थान मांगा तो राजा ने चार स्थान दिये। पहला स्थान जुआ क्रीड़ा , दूसरा शराब खाना , तीसरा वैश्य स्थल दिये। तीनों स्थानों के बारे में सुनकर कलयुग ने राजा परीक्षित से कोई अच्छा स्थान प्रदान करने को कहा। इस पर राजा द्वारा भूल से उनके मुख से चौथे स्थान का नाम सोना निकल गया। कुछ समय पश्चात राजा ने अपने पूर्वजों के मुकुटों को देखना चाहा तो एक मुकुट बहुत सुंदर था जिसको धर्मराज युधिष्ठिर ने छिपा कर रखा था। यह मुकुट जरासंध का था जिसको भीम छीन कर लाया था। राजा ने जैसे की उस सोने के मुकुट को पहना , कलयुग उसकी बुद्धि पर सवार हो गया। राजा जंगल में शिकार करते भूख प्यास से व्याकुल शमीक ऋषि के आश्रम पहुंचा। ऋषि उस समय ध्यान में लीन थे , राजा ने उन्हें पुकारा तो ऋषि का ध्यान उन पर नहीं गया। राजा को लगा कि ऋषि ने जान बूझकर उनका अपमान किया है , क्रोध में राजा की बुद्धि बिगड़ गई और उसने एक मरे को सांप को ऋषि के गले में डाल दिया। ऋषि के पुत्र को जैसे ही इस बारे में पता चला उसने तुरंत राजा को श्राप दे दिया कि उसकी मृत्यु सात दिनों के अंदर तक्षक नाग के डसने से हो जायेगी। जब राजा परीक्षित को श्राप का पता चला तो उन्हें बहुत पछतावा हुआ , उन्होंने राज्य में आये शुकदेव मुनि से इसका उपाय पूछा। इस पर मुनि शुकदेव ने राजा परीक्षित की मुक्ति के लिये सात दिन भागवत कथा सुनाई। जिसे सुन राजा परीक्षित भगवान की भक्ति में लीन हो गये , सात दिन पूरे होते ही ऋषि के श्राप के अनुसार तक्षक नाग ने आकर परीक्षित को काट लिया। भगवान की भक्ति में लीन राजा परीक्षित को इसका पता तक नहीं चला और भागवत कथा के प्रभाव से उन्हें मुक्ति प्राप्त हो गई। इधर पिता की मृत्यु को देखकर राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय क्रोधित होकर सर्प नष्ट हेतु आहुतियांँ यज्ञ में डलवाना शुरू कर देते हैं जिनके प्रभाव से संसार के सभी सर्प यज्ञ कुंडों में भस्म होना शुरू हो जाते हैं तब देवता सहित सभी ऋषि मुनि राजा जनमेजय को समझाते हैं और उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं। इस कथा के मुख्य यजमान श्रीमति प्रसन्नी कौशलेन्द्र सिंह थे , कथा में प्रतिदिन आसपास के श्रद्धालुगण , जनप्रतिनिधि एवं मीडियाकर्मियों की उपस्थिति रहती थी। वहीं आज तुलसी वर्षा , सहस्त्रधारा और भोज सहित श्रीमद्भागवत कथा का विश्राम हुआ।

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