अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
रायपुर -- आज प्रदेश भर में छत्तीसगढ़ का लोक पारंपरिक भोजली त्यौहार उमंग और हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। भोजली का तिहार सिर्फ मित्रता का ही उत्सव नहीं है, बल्कि नई फसल की कामना के लिये गांवों में यह त्योहार मनाया जाता है। इस संबंध में विस्तृत जानकारी देते हुये अरविन्द तिवारी ने बताया कि धरती माता और प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने के लिये श्रावण पूर्णिमा के दूसरे दिन भोजली उत्सव मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। भोजली नई फसल की प्रतीक होती है। अच्छे फसल और खुशहाली की कामना के लिये अपने अपने घरों में लोग छोटी छोटी टोकनी में भोजली बोते हैं। फिर बच्चियांँ उन भोजली की टोकरियों को सिर पर लेकर बाजे गाजे के साथ नदी या तालाब में विसर्जन के लिये निकलती हैं। इसमें सभी वर्ग की महिलायें , बुज़ुर्ग और बच्चे शामिल होते हैं। इस पर्व पर छत्तीसगढ़ के भोजली लोक गीत गाये जाते हैं। भोजली याने भो-जली। इसका अर्थ है भूमि में जल हो। यहीं कामना करती है महिलायें इस गीत के माध्यम से। इसीलिये भोजली देवी को अर्थात प्रकृति के पूजा करती है। इस दौरान उनके द्वारा देवी गंगा देवी गंगा लहर तुरंगा हमर भोजली दाई के भीजे आठो अंगा गीत गाये जाते हैं। सामूहिक स्वर में गाये जाने वाले भोजली गीत छत्तीसगढ की शान हैं। खेतों में इस समय धान की बुआई व प्रारंभिक निराई गुडाई का काम समापन की ओर होता है। किसानों की लड़कियाँ अच्छी वर्षा एवं भरपूर भंडार देने वाली फसल की कामना करते हुए फसल के प्रतीकात्मक रूप से भोजली का आयोजन करती हैं। गांँव , नगर में भ्रमण कर नदी तालाब में भोजली का पूजा पाठ कर विसर्जन करते हैं.. उसके बाद एक दूसरे को भोजली देते हैं भोजली देकर बड़ो का आशीर्वाद लिया जाता है। वहीं हम उम्र के लोग एक दूसरे की कान में भोजली रखकर दोस्ती निभाने का संकल्प भी लेते हैं। जिसके बाद दोस्ती ऐसी पक्की हो जाती है कि एक दूसरे का नाम नही बल्कि मितान बोलकर ही सम्बोधन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि आज के दिन एक दोस्त बनने के बाद जीवन भर मित्रता निभाने के संकल्प का पालन करते हैं। हालांकि अब शहरो में यह परंपरा कम ही दिखाई देती है मगर गांवो में इस तिहार को पूरे उत्साह के साथ उत्सव की तरह ही मनाया जाता है।
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