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Wednesday, December 22, 2021

धर्म की रक्षा के लिए महर्षि दधीचि ने किया अपनी हड्डियो का दान - आचार्य पंडित रवि शास्त्री महाराज


धर्म की रक्षा के लिए महर्षि दधीचि ने  किया अपनी हड्डियो का दान - आचार्य पंडित रवि शास्त्री महाराज

दमोह -स्थानीय  सिविल वार्ड 7 मे चल रही श्रीमद् भागवत कथा के दूसरे दिन कथा व्यास आचार्य पंडित रवि शास्त्री महाराज ने कहा कि हमे धर्म रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए उन्होने कहा कि महर्षि दधीचि ने तो धर्म रक्षा के लिए जीवित अवस्था मे ही अपनी हड्डियो का दान कर दिया था उन्होने कहा कि महर्षि दधीचि  वैदिक ऋषि थे इनके जन्म के संबंध में अनेक कथाएँ हैं  ये अथर्व के पुत्र हैं। पुराणों में इनकी माता का नाम शांति मिलता है। इनकी तपस्या के संबंध में भी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं इन्हीं की हड्डियों से बने वज्र से इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया था  इनका प्राचीन नाम श्दध्यंचश् कहा जाता है, दधीचि द्वारा देह त्याग देने के बाद देवताओं ने उनकी पत्नी के सती होने से पूर्व उनके गर्भ को पीपल को सौंप दिया था, जिस कारण बालक का नाम श्पिप्पलादश् हुआ था।

श्री शास्त्री ने कहा कि कल्प भेद  के मतानुसार दधीचि की माता श्चित्तिश् और पिता श्अथर्वाश् थे, इसीलिए इनका नाम श्दधीचिश् हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या श्शांतिश् के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। दधीचि प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम श्गभस्तिनीश् था। महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। यूँ तो श्भारतीय इतिहासश् में कई दानी हुए हैं, किंतु धर्म रक्षा  के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। देवताओं के मुख से यह जानकर की मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र द्वारा ही असुरों का संहार किया जा सकता है, महर्षि दधीचि ने जीवित अवस्था मे ही अपनी अस्थियों का दान कर दिया।

देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे। वह देवताओं को भांति-भांति से परेशान कर रहा था। अन्ततः देवराज इन्द्र को इन्द्रलोक की रक्षा व देवताओं की भलाई और धर्म रक्षा के  लिए  देवताओं सहित महर्षि दधीचि की शरण में जाना ही पड़ा। महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आश्रम आने का कारण पूछा। इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने कहा कि- ष्मैं देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हूँ।ष् देवताओं ने उन्हें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की कहीं हुई बातें बताईं तथा उनकी अस्थियों का दान माँगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। उन्होंने समाधी लगाई और अपनी देह त्याग दिया।

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