सुआ जो दिल को छुआ…..!
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जांजगीर चांपा । जो दिल को छुआ वो है असली सुआ …और जो दिल को नहीं छुआ, तो सुआ कहां हुआ ? जी हां , किसी कवि ने लिखा है कि वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान।
समाज में वियोग संयोग दोनों ही रसों का बड़ा महत्व है। इसमें जब नायक परदेश में रहता है। तो उसे तोते के माध्यम से उसकी नायिका अपने मन की बात को प्रेषित करत है । तोते को छत्तीसगढ़ी में सुआ कहा जाता है । यही सुआ यहां का पारंपरिक नृत्य है जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी लोग करते आ रहे हैं।
पारम्परिक भारतीय संस्कृत-हिन्दी साहित्य में प्रेमी-प्रेमिका के बीच संदेश लाने ले जाने वाले वाहक के रूप में शुक (तोता) का मुख्य स्थान रहा है। मानवों की बोलियों का हूबहू नकल करने के गुण के कारण एवं सदियों से घर में पाले जाने वाला यह जीव ख़ासकर कन्याओं व नारियों का प्रिय माना जाता है। मनुष्य की बोली की नक़ल उतारने में सिद्धस्त इस पक्षी को साक्षी मानकर उसे
अपने मन की बात ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना, कहि आते पिया ला संदेस’ कहकर वियोगिनी नारी इन लोकगीतों के अनुसार यह संतोष करती रही
कि उनका संदेशा उनके पति-प्रेमी तक पहुँच रहा है। कालान्तर में सुआ के माध्यम से नारियों के संदेश गीतों के रूप में गाये जाने लगे और प्रतीकात्मक रूप में सुआ का रूप मिट्टी से निर्मित हरे रंग के तोते ने ले लिया, साथ ही इसकी लयात्मकता के साथ नृत्य भी जुड़ गया।
कौन करता है नृत्य
सुआ नृत्य गीत कुमारी कन्याओं तथा विवाहित स्त्रियों द्वारा समूह में गाया और नाचा जाता है। इस नृत्य गीत के परंपरा के अनुसार बाँस की बनी टोकरी में धान रखकर उस पर मिट्टी का बना, सजाया हुआ सुवा रखा जाता है। लोक मान्यता है कि टोकरी में विराजित यह सुवा की जोड़ी शंकर और पार्वती के प्रतीक होते है सुआ नाच के लिए एक टोकरी में धान के साथ लकड़ी के तोते।
धान से भरी टोकरी में तोते की दो मूर्तियाँ होती है। महिलाएँ इन्हें ही संबोधित करके सुआ गीत गाती हैं। टोकरी को सिर पर धारण करने वाली लड़की को सुग्गी कहा जाता है। सुआ गीत लोक में इतना प्रिय है इसमें जाति बंधन नहीं है। सुआ नृत्य में सभी जाति की महिलाएँ भाग लेती हैं इस प्रकार से सुआ गीत को किसी जाति विशेष का गीत नृत्य मानना उचित नहीं प्रतीत होता।
सुवा नृत्य सामान्यतया सँध्या को आरंभ किया जाता है। गाँव के किसी निश्चित स्थान पर महिलाएँ एकत्रित होती हैं जहाँ इस टोकरी को लाल रंग के कपड़े से ढँक दिया जाता है। टोकरी को सिर में उठाकर दल की कोई एक महिला चलती है और किसानों के घर के आँगन के बीच में उसको रख देती हैं। दल की महिलाएँ उसके चारों ओर गोलाकार खड़ी हो जाती हैं। टोकरी से कपड़ा हटा लिया जाता है और दीपक जलाकर नृत्य किया जाता है।
छत्तीसगढ़ में इस गीत नृत्य में कोई वाद्ययंत्र उपयोग में नहीं लाया जाता। महिलाओं के द्वारा गीत में तालियों से ताल दिया जाता है। कुछ गाँवों में महिलाएँ ताली के स्वर को तेज करने के लिए हाथों में लकड़ी का गुटका रख लेती हैं। छत्तीसगढ़ से सौ साल पहले असम गए असमवासी छत्तीसगढ़िया भी इस नृत्य गीत परंपरा को अपनाए हुये हैं, हालाँकि वे सुवा नृत्य गीत में मांदर वाद्य का प्रयोग करते हैं जिसे पुरुष वादक बजाता है।
प्राचीन परंपरा में सुवा गीत नृत्य करने महिलाएँ जब गाँव में किसानों के घर-घर जाती थीं तब उन्हें उस नृत्य के उपहार स्वरूप पैसे या अनाज दिया जाता है जिसका उपयोग है वे गौरा-गौरी के विवाह उत्सव में करती थी। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि तब सुवा नृत्य से उपहार स्वरूप एकत्र राशि से गौरा-गौरी का विवाह किया जाता था जिससे यह स्पष्ट है कि सुवा नृत्य का आरंभ दीपावली के पहले से ही हो जाता है।
पारम्परिक रूप से सुवा नृत्य करने वाली नारियाँ हरी साड़ी पहनती हैं जो पिंडलियों तक आती है, आभूषणों में छत्तीसगढ़ के पारंपरिक आभूषण करधन, कड़ा, पुतरी होते हैं। इन परम्पराओं में बदलाव है, ‘आज सुआ नृत्य और गीत का स्वरूप बदल गया है। छत्तीसगढ़ का पहनावा साड़ी और करधन, कड़ा, पुतरी भी अब देखने में नहीं आता है। गीतों के बोल आधुनिक हो रहे हैं फिल्मीकरण हो रहा है। सुआ नृत्य में लड़कियाँ अब आधुनिक परिधान पहन रही हैं’।
सुआ सामूहिक गीत नृत्य है इसमें छत्तीसगढ़ की नारियाँ मिट्टी से निर्मित सुआ को एक टोकरी के बीच में रख कर वृत्ताकार रूप में खड़ी होती हैं। सुआ की ओर ताकते हुए झुक-झुक कर चक्राकार चक्कर लगाते, ताली पीटते हुए नृत्य करते हुए गाती हैं। ताली एक बार दायें तथा एक बार बायें झुकते हुए बजाती हैं, उसी क्रम में पैरों को बढाते हुए शरीर में लोच भरती हैं। इस नृत्य में स्त्रियाँ तोते की ग्रीवा की तरह सिर हिलाती हैं। नृत्य करते हुए गोल घेरे में जब यह नाचती हैं तो इनकी टाँगें तोते की उठी हुई टाँग जैसी दिखती हैं।
सुआ गीत के पदों में विभिन्न लोक अवयव होते हैं। प्रकृति, कृषि, कृषक, रिश्ते-नाते, लोक व्यवहार के साथ ही विरहणी प्रेयसी या पत्नी की व्यथा इसमें होती है। आपस में हंसी-ठिठोली, हास-परिहास आपसी नोंक-झोंक और यादों का इसमें विस्तार होता है। प्रतीकात्मक रूप से सुवा को यह बातें कहते हुए ग्राम बालायें गाती हैं।
सुआ गीत नारी जीवन के सुख-दुख, हर्ष विषाद और व्यवस्था का ही चित्रांकन है। इस गीत में पारिवारिक प्रसंग और प्रेम के विविध अनुभव प्रस्तुत होते हैं। वैसे तो यह लोकगीत करुण रस प्रधान होते हैं लेकिन श्रृंगार और हास्य की झलक भी इसमें होता हैं।
बाइट- 01-------- यामिनी
बाइट- 02-------- जानकी
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