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Monday, April 29, 2024

साधना शिविर में पुरी शंकराचार्यजी का धर्म की महत्ता पर आध्यात्मिक संदेश

 साधना शिविर में पुरी शंकराचार्यजी का धर्म की महत्ता पर आध्यात्मिक संदेश




अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट 


सीकर - ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर एवं हिन्दू राष्ट्र प्रणेता अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगदुरु शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज के सानिध्य में पच्चीसवां त्रिदिवसीय साधना एवं राष्ट्र रक्षा शिविर जारी है। अपने आध्यात्मिक संदेश में पुरी शंकराचार्य उद्घृत करते हैं कि सच्चिदानन्द तत्त्व सर्वेश्वर सबके निमित्त और उपादान कारण हैं। जड़ के मूल में जड़ ही नहीं माना जा सकता क्योंकि जगत् को बनाने वाला भी जगदीश्वर और जगत् के रूप में सम्मुलसित भी जगदीश्वर ही होता है। वैज्ञानिक आर्कमिडीज का कहना था कि यदि मुझे पृथ्वी का केन्द्र मिल जाये तो मैं पृथ्वी को उठा सकता हूँ। ज्ञातव्य हो कि हमारे वेदशास्त्रों में पृथ्वी ही नहीं हमारे सम्पूर्ण सृष्टि के केन्द्र का भी वर्णन किया गया है। परमात्मा अविनाशी है और उसकी शक्ति अव्यक्त प्रकृति है। निर्विशेषता की अवधि का नाम परमात्मा है तथा सविशेषता की अवधि का नाम पृथ्वी है। दोनों के बीच बीजावस्था में अव्यक्त प्रकृति उपस्थित है। प्रत्येक जीव को धर्म के प्रति आस्थान्वित होना चाहिये। हम जिस प्रकार दूसरों से व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं हमें सामने वाले के प्रति वैसा ही व्यवहार रखना चाहिये। हिन्दुओं की सबसे बड़ी दुर्बलता अपने पेट और परिवार तक सीमित रह जाना है। परमात्मा और उसका प्रणव शब्द ब्रह्म प्रकृति है। जब शब्द में सन्निहित अचिंत्य शक्ति के बल पर सिर्फ लौकिक नाम पुकारे जाने पर सोया हुआ व्यक्ति जागृत अवस्था में आ जाता है। तब ऋग्वेद आदि द्वारा प्राप्त भगवान् के नाम राम, कृष्ण, शिव में अचिंत्य शक्ति अवश्य ही सन्निहित होगी। यह भगवत् नाम जपने में सन्निहित शक्ति को व्यक्त करता है। शब्द युक्त आत्मा का नाम अंत: करण है तथा शब्द विनिर्मुक्त आत्मा का नाम परमात्मा है। श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय और आठवें अध्याय के अनुशीलन से यह तथ्य स्थापित होता है कि अव्यक्त की भावापत्ति का नाम उत्पत्ति है। किसी भी वस्तु की सत्ता और उपयोगिता जिस पर निर्भर है उसी का नाम धर्म है। जिस प्रकार वन्ध्या पुत्र एक शब्द ही है और वास्तव में इसका अस्तित्व ही नहीं होता वैसे ही धर्मनिरपेक्ष सिर्फ शब्द है क्योंकि कोई भी वस्तु धर्म सापेक्ष हुये बिना अस्तित्व विहीन हो जाता है। यज्ञ, दान, तप और व्रत धर्म है। हम सब क्रमशः मनसिज होते हुये जरायुज , अंडज, श्वेत फिर उदभिज्ज्य है। वेदादि शास्त्रों में सन्निहित कर्मकांड , उपासनाकांड और ज्ञानकांड की उपेक्षा करने पर यह विश्व नरक और नारकीय प्राणियों का समुदाय ही रह जायेगा। आवश्यकता इस बात की है कि सनातन वर्णाश्रम व्यवस्था का पालन हो तथा वेदादि शास्त्रों में वर्णित सिद्धान्तों का पालन शास्त्रोक्त विधि से हो क्योंकि मन: कल्पित विधा से शास्त्रों के नियमों का पालन करने पर विपरीत परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। सनातन शास्त्रसम्मत हमारे भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, रक्षा, उत्सव त्योहार, कृषि, गोरक्ष्य , व्यापार आदि व्यवस्था इस राकेट, कम्प्यूटर, मोबाइल और एटम के युग में दर्शन, विज्ञान और व्यवहार की दृष्टि में प्रासंगिक और सर्वोत्कृष्ट है।

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